Wednesday, June 28, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : बालाजी मंदिर गुवाहाटी

कामाख्या मंदिर और उमानंद टापू घूमने में ही शाम हो गयी और गुवाहाटी स्टेशन से सटे पलटन बाजार में ही हमने रूम ले लिया। पलटन बाजार काफी महत्वपूर्ण मार्केट है। जरूरत की हर चीज यहां मिल जाती है। शिलांग और चेरापूंजी के लिये बस और टैक्सी भी यहीं से जाती हैं। सामने ही बस स्टैंड है जहां क्लौक रुम में आप अपना सामान जमा कर घूम सकते हैं। बगल में ही एक बडी पार्किगं हैं। होटल और लौज भी बहुत सारे हैं। शाकाहारी एवं मांसाहारी भोजनालय भी बहुत हैं। शाकाहारी थाली पचास रुपये की है जिसमें चावल रहता है। रोटियां अलग से लेनी पडती हैं। शाम को तो हम हारे थके सो गये लेकिन सुवह जल्दी ही हमने गुवाहाटी दर्शन के लिये एक औटो कर लिया। हजार रुपये में मुख्य मुख्य पांच स्थल तय कर लिये हमने जिसमें बालाजी मंदिर वशिष्ठ मंदिर भीमेश्वर गुफा नवग्रह मंदिर शंकरदेव कला क्षेत्र के बाद  चिडियाघर छोड देना था। 
बेहद खूबसूरत और अपनी एक अलग संस्कृति लिए हुए पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार गुवाहाटी असम का सबसे बड़ा शहर है। ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर स्थित यह शहर प्राकृतिक सुंदरता से ओत-प्रोत है। यहां न सिर्फ राज्य, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र की विविधता साफ तौर पर देखी जा सकती है। संस्कृति, व्यवसाय और धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र होने के कारण आप यहां विभिन्न नस्लों, धर्म और क्षेत्र के लोगों को एक साथ रहते देख सकते हैं।
सबसे पहले हम पहुंचे अंतर्राष्ट्रीय राजमार्ग स्थित बालाजी मंदिर जिसे हम पूर्वोत्तर के तिरूपति भी कह सकते हैं। हाईवे पर लोखरा बेटिकुचि नामक स्थान पर एक बडा सा एकदम सफेद दरवाजा और उसके अंदर विशाल मंदिर परिसर दिखाई देता है। औटो बाला हमें गेट पर ही छोडकर पार्किगं की तरफ चला गया ताकि हम गेट पर स्थित गणेश जी के दर्शन कर सकें। प्रवेश द्वार के बगल ही एक छोटा सा मंदिर है गणेश जी का। अंदर फोटो एलाउड नहीं है बाहर से खींच सकते हैं। गणेश जी के दर्शन के बाद रोड पर अदंर की तरफ आगे बढते हैं। एकदम साफ सुथरा और हरियाली युक्त रोड । रोड के दोनों ओर लगे सुंदर हरे भरे पेड पोधे। हरियाली के बीच दूध जैसी सफेद चमकती मंदिरों की पंक्तियां। सबसे पहले आता है पदमावती मंदिर। पदमावती भगवान बैंकटेश/ विष्णु की पत्नी लक्षामी हैं। बैंकटेश कोई और नहीं बल्कि कृष्ण ही हैं। दक्षिण में इन्हें बैंकटेश के नाम से पूजा जाता है। पुनर्जन्म के किस्से कहानियां तो मान्यतायें बनवा देती हैं। बाकी ये सच है कि कृष्ण भगवान ने श्री राम से ज्यादा ख्याति पायी है। दक्षिण में बैंकटेश के रूप में , पूरब में जगन्नाथ के रुप में और पश्चिम में द्वारकाधीश के रूप में। पंडितों ने भले ही उन्हें अवतारवाद में लपेट लिया हो पर उन्हौने खुद को परमब्रम्ह ही कहा है। अहम ब्रम्हास्मि। हर जीव में हर मनुष्य में प्रकृति के हर तत्व में मैं ही मैं हूं। देव और दानव सब मुझमें ही समाये हुये हैं। 
पदमावती मंदिर , गरुड मंदिर , दुर्गा मंदिर हों या गोपाला बैंकटेश्वर भगवान का मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला गजब की है। सभी मंदिरों के बाहर सुंदर हरा भरा पार्क मंदिरों की सुंदरता में चार चांद लगा देता है। मुख्य मंदिर बालाजी का है जिसमें चार टनी एक ही पत्थर की मूर्ति स्थापित है। मंदिर में राजगोपुरम, महामंडपम, एक अर्दमंडपम भी दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित है। गोपुरम की ऊंचाई गणेश मंदिर में आठ फुट तो राजगोपुरम की सत्तर फीट है। 
तिरुपति बालाजी की तरह यहां भी प्रसाद के रूप में लड्डू मिलते हैं। 
दो एकड भूमि पर फैले इस मंदिर परिसर का साफ सुथरा वातावरण, उत्कृष्ट स्थापत्य शैली और सुंदर पार्क देखने योग्य है। नारियल और अशोक के पेड दोपहर में भी आराम प्रदान करते हैं तो तरह तरह के रंग बिरंगे फूल मंदिर को और सुंदर बना देते हैं। मंदिर के पीछे पहाडियों की कतार परिदृश्य को खूबसूरत बनाती है। मुख्य प्रवेश द्वार और मंदिर के बीच एक साठ फुट ऊंचा ध्वज स्तंभ भी है जो एक साल पेड के तने से निर्मित है। मंदिर मुख्यतया बालाजी अर्थात बैंकटेश्वर भगवान को समर्पित है जिसकी चार टन के एक ही पत्थर से प्रतिमा बनायी गयी है। बालाजी की मूर्ति जो चार भुजाओं बाली है जिसमें शंख चक्र आदि शिशोभित हैं का मुस्कुराता हुआ चेहरा भगवान की आभा बिखेरता हुआ प्रतीत होता है। इन्ही मंदिरों के बगल ही एक सुंदर यज्ञशाला भी है। इसके साथ ही नाट्यशाला भी है। हमें तो दिनभर में पूरा गोवाहाटी घूमना था इसलिये एक घंटे रुक कर ही नजदीकी भीमेश्वर महादेव की तरफ निकल लिये लेकिन औटो चालक ने बताया कि इस मंदिर का रात्रिकालीन दृश्य भी बहुत खूबसूरत होता है। पूरा मंदिर दूधिया रोशनी में नहा जाता है। इस परिसर में औडिटोरियम भी देखने लायक है। दिन और रात्रि दोनों में ही भव्य होता है। 
हमारे आज के गुवाहाटी दर्शन का पहला स्थल ही मन को प्रशन्न कर गया। ना कोई भीड ना कोई अन्य कर्मकांड बाली धक्कामुक्की । एकदम शांत और सुंदर माहौल। भगवान के दर्शन लाभ हुये। मन खुश हुआ। और हम चल दिये पहाडों की तरफ जहां प्राकृतिक रुप से झरते हुये जल ने शिवजी का निर्माण कर दिया था। बैसे भी पहाडों में तो अपनी जान बसती है।















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Sunday, June 25, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : उमानंद मंदिर गुवाहाटी

कामाख्या मंदिर से निकलते निकलते हमें शाम के तीन बज चले थे। सोचा क्यूं न रूम लेने से पहले कामाख्या मंदिर से आठ किमी पर ही उमानंद शिव जी का मंदिर घूम लिया जाय। चूंकि उमानंद मंदिर ब्रम्हपुत्र नदी के बीचोंबीच पीकौक आईलेंड पर स्थित है जिसके लिये हमें फैरी / नाव पकडनी पडती है, अंधेरा होने से पहले ही जाया जा सकता था अत: कामाख्या से बाहर निकल सीधे पान बाजार की तरफ एम जी रोड स्थित फैरी स्टैंड की तरफ की बस पकड ली जिसने हमें नदी के तट पर छोड दिया। इस तट के अलावा अन्य तट भी हैं जहां से नाव चलती हैं हालांकि ये नजदीक है। करीब आधे किमी सफर के लिये ये नाव सौ रुपये प्रति व्यक्ति (आना जाना) लेती है। टापू पर घूमने को एक घंटा रुकने का समय देती है। यदि आप चाहें तो एक तरफा बोट भी ले सकते हैं। ब्रम्हपुत्र नदी बहुत विशाल है। जगह जगह इसमें छोटे छोटे टापू बने हुये हैं। विश्व का सबसे बडा नदी द्वीप माजुली भी इसी नदी में है। उमानंदा मंदिर भी ऐसे ही एक बडे टापू पीकौक द्वीप पर बना है। नदी के बींचो बीच हरा भरा पेड पौधों से आच्छादित एक खूबसूरत द्वीप। जिस पर्वत पर इस मंदिर का निर्माण हुआ है, उसे भस्मशाला कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव की आराधना में खलल डालने के कारण कामदेव को भस्म हो जाने का श्राप मिला था, जिसके चलते इस पर्वत का नाम भस्मशाला पड़ा।
उमा मां पार्वती का ही नाम है तो उमानंद हैं आदि देव शिव।  इस मंदिर से नीलांचल पहाड़ी भी दिखाई देती है जहां स्थित है माँ कामाख्या देवी का मंदिर। ऐसी मान्यता है कि जब भगवान शिव यहाँ ध्यान  कर रहे थे तब माता पार्वती नीलांचल पहाड़ी पर उन की प्रतीक्षा कर रही थी। इस लिए इस मंदिर का नाम उमानंद पड गया। कहानी किस्से किवदंतियां मान्यताओं के अनुसार बन जाती हैं लेकिन एक सर्वमान्य सत्य जो मैंने अपने भारतवर्ष के भ्रमण में पाया वो ये है कि पेड पौधों पहाडों गुफाओं नदियों और झरनों की जहां जहां आपको खूबसूरती मिलेगी वहां शिव का वास जरूर मिलेगा। मेरा निजी अनुभव तो यही कहता है कि ये प्रकृति ही शिव है। हर कंकर में शंकर है। शिव ही सत्य है तभी तो यह सुंदर है।  
श्रावण महीने में जहां महीने भर भगवान शिव का अभिषेक होता है वहीं फाल्गुन महीने में आयोजित होने वाले शिवरात्रि को शिव स्वरूप “पति” और पार्वती स्वरुप “पत्नी”  की चाहत का पर्व मनाते हैं।


नाव खडी करने के स्थान पर यहां प्रौपर घाट नहीं था जो हमें नीचे की ओर बडी सावधानी से उतरना पडा। पैर फिसलता तो लुढकते हुये जाते सीधे ब्रम्हपुत्र में। सावधानी से नीचे उतरते हुये नाव में सवार हुये। मोटरवोट करीब बीस मिनट का समय लेती है। लेकिन यह सफर बहुत ही आनंददायक होता है। दिन भर की शहरी भागदौड और बसों की चढा उतरी के बाद मुझे इस यात्रा में जितना सुकून मिला उतना सुवह से अभी तक मिला नहीं था। हालांकि अभी शाम की धूप थी लेकिन हवा चल रही थी। विशाल नदी में बहुत सारी नावें ! बहुत ही मनमोहक दृश्य ! शहर से दूर जाते हुये। मैं चलकर नाव के एक दम जोर पर आ बैठा । बिल्कुल टाईटैनिक पोज। सामने बीसीयों हरे भरे टापू। उमानंद मंदिर टापू भी सामने ही था। एकदम हरा भरा। घने पेडों से मंदिर दिखाई नहीं देता दूर से। केवल विशाल जल राशि में खडे हुयी विशाल चट्टान और हरे भरे पेड दिखाई देते हैं।और फिर हम पहुंच जाते हैं टापू के किनारे। नाव से उतरते ही सीढियों का एक प्रवेश द्वार दिखाई देता है और वहीं बैठे हैं नारियल बेचने बाले जो आपको पानी की कमी पूरी कर सकते हैं। टापू तक पहुँचने के बाद सीढियां शुरू हो जाती हैं। बीस सीढियों के बाद मार्ग दो भागों में विभाजित हो जाता है। एक आने का और दूसरा जाने का। यहीं से शुरू हो जाता है उमानंद मंदिर परिसर। प्रवेश द्वार के दोनों ओर नंदी बैठे हैं।यहीं पर आसाम की भेषभूषा लिये एक महिला बैठी हैं जहां आप फोटो खिंचा सकते हैं। आसाम की पारंपरिक परिधान में हम दोनों बिल्कुल आसाम के कबीले परिवार से ही नजर आ रहे थे। हालांकि ये कपडे सर्दियों में ही पहन सकते हैं। हमें तो पांच मिनट में ही पसीना आ गया। सीढियां चढ़ते हुए जब आप आधी ऊंचाई पार कर लेंगे तब आप को पूजा सामग्री खरीदने के लिए कुछ दुकाने मिलेंगी और एक छोटा सा होटल जहां अक्सर लोग सुस्ताने और पानी पीने के बाद आगे बढ़ते हैं। फिर कुछ सीढियां चढ़ने के बाद आप को उजले रंग का उमानंद मंदिर का प्रवेश द्वार मिल जाएगा जहां प्रवेश कर आप मंदिर परिसर में पहुँच जाएंगे। यहीं सीढियों पर कुछ साधु संत भी बैठे मिलेंगे।
मंदिर परिसर में दाखिल होने पर सब से पहले टिन के छत वाला एक छोटा सा झोंपड़ी नुमा गणेश मंदिर मिलता है। भक्त पहले वहाँ माथा टेकने के बाद ही उमानंद मंदिर की ओर बढ़ते हैं। मंदिर के अंदरूनी परिसर का निर्माण काले, सफेद और लाल पत्थरों से किया गया है। उमानंद मंदिर में दाखिल होते ही मुख्य गर्भ ग्रह से सटे एक बड़े हॉल के बीचों बीच विराजमान हैं ब्रह्मा और विष्णु। ब्रह्मा और विष्णु की पूजा करने के बाद आगे बढ़ने पर मंदिर का मुख गर्भ ग्रह मिलता है जिस के द्वार के दोनों ओर राधे श्याम लिखा हुआ है और ऊपर कांसे के पतरी पर शिवजी की खुदी हुई तस्वीर लगी हुई है। यहाँ से आप मुख्य गर्भ ग्रह में प्रवेश करते हैं। इसके लिये हमें थोडा नीचे उतरना पडता है। संकरा मार्ग है । आराम से जाना ही ठीक है वरना घिसपिच हो जाती है। ठीक से दर्शन भी नहीं हो पाते। गर्भगृह में शिवलिंग के एक ओर फूल पत्तियां का ढेर दिखाई देता है तो दूसरी ओर नोटों का। गर्भ ग्रह के अंदर अखंड दीप जल रहा है जिसमें रोजाना एक लीटर तेल जलता है। यह दीप उस दिन से जल रहा है जब से इस मंदिर का निर्माण हुआ था। अहोम राजा गदाधर सिंह ने इस मंदिर को वर्ष 1694 में बनवाया था। वर्ष 1897 के विनाशकारी भूकंप के दौरान मूल मंदिर छतिग्रस्त हो गया था। बाद में एक स्थानीय व्यापारी ने फिर से मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर से जैसे ही बाहर निकलते हैं मूल मंदिर से सटा एक और लाल रंग का मंदिर दिखाई देता है जिसे महाकाल शिव मंदिर के नाम से जाना जाता है। महाकाल मंदिर से सटा हुआ एक और उजले रंग का छोटा सा मंदिर है जिसे बद्रीनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। नगाडों की आवाज़ का मतलब है कि अब भोग का समय हो गया है। पहले बाबा को भोग लगाया जाता है और उसके बाद भक्तगण या पुजारी भोग ग्रहण करते हैं।
ये मंदिर इतने एकांत और सुंदर स्थान पर हैं कि बैठे ही रहने का मन करता है। द्वार के बगल से ही पेयजल व्यवस्था भी है।शाम हो चली थी। सूरज भी अब छिपने की चेतावनी दे चुका था। हमें भी अभी रात का ठिकाना ढूंडना था। नावबाला भाई भी पुकार रहा था अत: चल दिये नीचे की ओर। एक बार फिर नाव चल दी बापस शहर की ओर। अबकी बार नजारा और मजेदार था। सूरज नदी में समाता जा रहा था। हवा ठंडी हो चली थी। मौसम भी मस्त हो चला था। तट पर आते ही बस तैयार मिली पलटन बाजार की। पलटन बाजार गुवाहाटी स्टेशन से सटा हुआ बाजार है जहां कमरे भी खूब मिलते हैं तो हर जगह के लिये वाहन भी। स्टेशन के नजदीक ही मात्र पांच सौ रुपये में रूम ले लिया हमने। उसी भवन में नीचे होटल भी था जहां पचास रुपये में शाकाहारी थाली ले सकते हैं। रूम पर आकर नहा धोकर शाम सात बजे पलटन बाजार की रौनक देखने पैदल ही निकल पडे। अगली सुवह गुहावाटी घूमने का विचार था।





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Saturday, June 24, 2017

आसाम मेघालय यात्रा: कामाख्या ।।

चूंकि आसाम यात्रा की शुरूआत कामाख्या देवी से ही करनी थी, हम गुवाहाटी स्टेशन से एक स्टेशन पहले ही कामाख्या स्टेशन पर उतर गये। अभी हमारा सीधे मंदिर ही जाने का विचार था अत: प्लेटफार्म पर ही स्नान आदि से फ्री हो लिये। वेटिगं रुम के अलावा भी आजकल प्लेटफार्म पर पे एंड यूज शौचालय स्नानघर बन गये हैं। लौकरूम भी हैं। यह रेलवे की अच्छी सुविधा है। सुवह के पांच बजने बाले थे लेकिन उजाला हो चुका था। पूर्वोत्तर में जल्दी सुवह हो जाती है। कामाख्यां स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने अपने घुमक्कड मित्र कपिल चौधरी को फोन लगाया जो रेलवे में आसाम में ही पोस्टिड हैं। उनका गुवाहाटी आना तो संभव नहीं हुआ लेकिन उन्हौने मेरी बजह से दो दिन की छुट्टी जरूर मंजूर करा लीं और मेरे जोरहाट आने का इंतजार करने लगे ताकि माजुली द्वीप साथ घूम सकें। हमारा पहला डेस्टीनेशन था गुवाहाटी दर्शन और उसमें भी सबसे पहले कामाख्या दर्शन। 
कामाख्या जंक्शन से कामाख्या बाली बस बाले मोड तक ले जाने के लिये जीपें या औटो चलती हैं जो दो सौ रुपये लेते हैं। मैंने औटो की बजाय बीस रुपये में रिक्सा लिया जिसने मुझे एक किमी दूर मुख्य रोड तक छोड दिया जहां से कामाख्या मोड के लिये बस मिल सकती थी। बस ने दस रुपये लिये कामाख्या मोड तक छोडने को। कामाख्या मोड दस रुपये में फिर एक औटो मिला जिसने हमें कामाख्या टैक्सी स्टैंड छोड दिया। टैक्सी स्टैंड से मंदिर तक करीब पांच सौ मीटर पैदल ऊपर की ओर चलना होता है। मंदिर के गेट पर ही जूते चप्पल और बैग जमा करने बाला होता है जो बीस रुपये लेता है। दर्शन करने के लिये मंदिर के बांयी ओर लाईन लगती है। मुझे पता होता कि लाईन में इतनी देर लगना होता है मैं तो कभी न लगता। भारत के बडे बडे मंदिर घूम लिये पर यहां जैसा गंदा राग तो कहीं नहीं देखा। वी आईपी दर्शन तो तिरुपति, केरल आदि मंदिरों में भी होता है लेकिन आम भक्त को इतना इंतजार तो कहीं नहीं करना पडता जितना यहां। मंदिर के बांयी ओर से पांच सौ मीटर की एक जालीदार लंबी संकरी गैलरी में चलना होता है जिसमें एक तरफ बैठने के लिये बैंच भी हैं। मुश्किल से पांच सौ श्रद्धालु होंगे लाईन में लेकिन हम आधे घंटे में बस दस कदम ही आगे खिसक पा रहे थे। चलते रहते तब भी कोई दिक्कत न होती। पैसे देकर दर्शन करने बालों को वरीयता दी जा रही थी और उन्हें मंदिर के नजदीक से ही लाईन में प्रवेश करा दिया जाता और हमारी लाईन रोक दी जाती। पैसे देकर दर्शन हमें कभी नहीं करने। ऐसे दर्शन से तो बिना दर्शन ही ठीक । बैसे भी मुझे कौनसे देवी से अपने लिये कुछ मांगना था, मुझे तो बस ये देखना कि कामाख्या का मतलब क्या होता है ? क्या बास्तव में यहां शक्ति के योनि रूप की ही पूजा होती है ? औरत का रजस्वला रूप भी मान्य है ? 


कामरूप देश में काम की पूजा ? फिर क्यूं हम काम से इतने घवराते संकुचाते हिचकिचाते फिरते हैं ? जब सार्वजनिक तौर पर हम लिंग और योनि के पूजक हैं तो उसे हम खुले रुप में स्वीकारते क्यूं नहीं हैं ? तो फिर क्यूं शिवजी के तीसरे नेत्र से कामदेव के शरीर को नष्ट करवा देते हैं? ऐसे देश में सैक्स पर खुली बात करना जुर्म क्यूं हो गया ? कामशास्त्र जैसे प्राचीन गृंथों में हम दुनियां को सेक्स सिखाते फिरते हैं और हम खुद इससे दूर भागते हैं ? यही सब सोचते विचारते हम आगे बढते रहे लेकिन हर एक घंटे बाद हमारे सामने बाला चैनल नीचे गिराकर हमें इंतजार करने को छोड दिया जाता। ऊंचाई की दृष्टि से हमारी गैलरी इस प्रकार बनी थी कि हम पूरे मंदिर को नीचे तलहटी में देख सकते थे। दर असल हम मंदिर का चक्कर लगाकर नीचे की तरफ उतरते जा रहे थे। करीब बारह बजे हमारी लाईन बलि घर के ठीक सामने और उसके बहुत नजदीक पहुंच गयी। लाल कुर्ता और धोती पहने पंडों को मैंने एक ही झटके में बकरी के बच्चों, मुर्गों एवं अन्य जीवों की गर्दन छिटकते हुये देखा। बलि के बकरी के बच्चे को सजा धजा कर लाया जाता। नहलाया भी जाता। खाने पीने को भी दिया जाता लेकिन बच्चे को मौत का पूर्वाभाष हो जाता और वह जोर जोर से अपनी जान की भीख मांगने लग जाता लेकिन देवी के नाम पर खुद मांस डकारने बाले लाल कपडों बाले इन कसाईयों को जरा भी रहम न आता और एक ही झटके में गर्दन धड से अलग हो जाती। बच्चे की आवाज दफन होकर रह जाती। छोटे छोटे जीवों के अलावा दो तीन बडे भैंसे भी काटे गये। दस दस पंडो ने रस्सों से जकड कर उनको मौत के घाट उतार दिया। धरती लाल हो गयी। पानी से सारा फर्श धो दिया गया । नाली में खून बहने लगा। मैं तो पक्का जी कर के यह सब देखता रहा लेकिन बाहर से आयी हुई कोमल ह्रदय महिलाओं के लिये यह सब बहुत ही नजदीक से देखना जीने मरने के समान था। गैलरी में हम बंद थे। दूर भी नहीं जा सकते थे। लाईन में रहना मजबूरी थी। बलि के गेट पर आये ही थे कि दोपहर का विश्राम हो गया और एक घंटे के लिये दर्शन विराम हो गया। सुवह के भूखे प्यासे बैठे थे। पानी पिलाने के लिये गैलरी के बाहर एक दो बच्चे खडे थे जो नीचे नल से पानी भरकर लाकर दे रहे थे लेकिन खाने को कुछ भी नहीं था। दोपहर के दो बज चले थे। पेट में अन्न का दाना भी नहीं। ऊपर से गर्मी ने हालत खराब कर रखी थी। मैंने तुरतं बैक गियर लगाया और गैलरी में पीछे से घूम कर बाहर निकल आया। खुली हवा मिली । जान में जान आयी। मंदिर के दक्षिणी दरवाजे पर एक दुकान है वहां से विस्किट के दो पैकेट ले आया। एक पैकेट राजो ने और एक मैंने खींच लिया।शरीर में थोडी सी जान आयी तो दर्शन करने की इच्छा भी बलवती हुई वरना हिम्मत टूट चली थी। थोडी देर बाद ही मुख्य मंदिर के कपाट खोल दिये और लाईन आगे बढ चली। मुख्य प्राचीन मंदिर या योनि स्थल से पहले ही एक स्तूपाकार विशाल हौल है जिसे पार कर गुफा की ओर बढना होता है। अंधेरा भी होता है। आगे बढते जाते हैं।मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे गुफा में स्थित है। फोटोग्राफी की अनुमति अंदर नहीं है। बाहर चाहे जितनी करो। गर्भ गृह में देवी की कोई तस्वीर या मूर्ति नहीं है। गर्भगृह में सिर्फ योनि के आकार का पत्थर है जो शक्ति का योनि रूप है। देवी की महामुद्रा कहलाता है योनि रूप। रजस्वला के समय हर माह तीन दिनों के लिए बंद होता है। यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठ में शामिल है। गुफा से बाहर निकलने के लिये एक अलग द्वार है ।मंदिर परिसर के चारों ओर  आंगन रूपी खुली जगह है जिसके एक तरफ तो रपटनुमा ऊंची चडाई है तो दूसरी तरफ वरामदे बने हैं जिनमें धार्मिक अनुष्ठान होते रहते हैं। कामाख्या देवी के अलावा दस महाविद्या, काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला की पूजा भी कामाख्या मंदिर परिसर में की जाती है। यहां बलि चढ़ाने की प्रथा यहां की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों ने बनायी है। इसके लिए मछली, बकरी, कबूतर और भैंसों के साथ ही लौकी, कद्दू जैसे फल वाली सब्जियों की बलि भी दी जाती है। पूस के महीने में यहां भगवान कामेश्वर और देवी कामेश्वरी के बीच प्रतीकात्मक शादी के रूप में पूजा की जाती है। गुफा से बाहर निकलते शाम के तीन बज चले थे। मुख्य मंदिर के बाहर परिसर में बहुत सारे लाल कपडे पहने पंडे और उनके यजमान अलग अलग वरामदों में विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे। इससे पहले कि मैं कामाख्या मंदिर से बाहर निकल कर उमानंद मंदिर के लिये बस पकडूं आपको कामाख्या के बारे में बताना चाहूंगा कि कामाख्या मंदिर गुवाहाटी का मुख्य धार्मिक स्थल है। ये मंदिर गुवाहाटी के अंतर्गत आने वाली नीलाचल पहाड़ियों में स्थित है जो रेलवे स्टेशन से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मन्दिर एक तांत्रिक देवी को समर्पित है। इस मन्दिर में आपको मुख्य देवी कामाख्या के अलावा देवी काली के अन्य 10 रूप जैसे धूमावती, मतंगी, बगोला,  तारा, कमला, भैरवी, चिनमासा, भुवनेश्वरी और त्रिपुरा सुंदरी भी देखने को मिलेंगे। कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से आठ किलोमीटर दूर कामाख्या में है। कामाख्या से भी दस किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है जो एक ऊंची पहाड़ी पर बना है व इसका तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत एक वरदान है। यह अम्बूवाची पर्वत भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। कामाख्या मंदिर का प्लान (खाका) सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं।इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था।जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये।
















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