Thursday, March 30, 2017

राजस्थान दिवस की शुभकामनाएं ।।

तोडने में तो वक्त ही कितना लगता है जोडने में पसीना आ जाता है। आज सत्ता सुंदरी के इर्द गिर्द मंडराते लार टपकाते सियासी भेडिये चाहे कितना ही देशभक्ति का दिखावा कर लें, सच तो ये है 562 कबीलों के इस जंगल को उपवन बनाने में सिर्फ और सिर्फ जमीन से जुडे किसानों, मजदूरों और बंचितों का खून बहा है। भारत के एकीकरण के समय कुल 562 रियासत थी जिसमें सबसे बड़ी रियासत हैदराबाद व सबसे छोटी रियासत बिलवारी (मध्यप्रदेश) थी। केवल काश्मीर, जूनागढ और हैदराबाद ही नहीं थे बल्कि और भी बहुत से लालची सियासी भेडिये थे जिनकी समझ में सिर्फ जूते की भाषा आयी थी वरना ये तो अपने ऐशो आराम के लिये इस देश को जहन्नुम में धकलने जा रहे थे। आज राजस्थान दिवस है इसलिये मैं आज सिर्फ राजस्थान के एकीकरण की ही बात करूंगा। 
राजस्थान के एकीकरण के समय कुल 19 रियासतें व 3 ठिकाने- लावा(जयपुर), कुशलगढ़(बांसवाड़ा) व नीमराना(अलवर) तथा एक चीफशिफ अजमेर-मेरवाड़ा थे। रियासती विभाग की स्थापना जुलाई 1947 में की गई जिसके अध्यक्ष दृण इच्छा शक्ति के धनी लोहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल बने और रियासती विभाग का सदस्य सचिव- वी. पी. मेनन को एवं अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का अध्यक्ष पण्डित जवाहर लाल नेहरू को बनाया गया।राजस्थान का एकीकरण 7 चरणों में पुरा हुआ। इसके एकीकरण में 8 वर्ष 7 महीने और 14 दिन का समय लगा। राजस्थान की सबसे प्राचीन रियासत मेवाड़(उदयपुर) थी। टोंक व जोधपुर रियासतें एकीकरण के समय पाकिस्तान में मिलना चाहती है। जोधपुर नरेश ने तो धौलपुर नरेश को भी बहकाने में कोई कसर न छोडी थी। ऐन टाईम पर जनता ने जूते न फटकारे होते तो आज मैं पाकिस्तान में भीख मांग रहा होता। तब जाकर अलवर, भरतपुर व धौलपुर रियासतों ने भाषायी समानता के आधार पर उत्तरप्रदेश में मिलने की इच्छा जतायी। दो मुस्लिम रियासतें टोंक व पालनपुर(गुजरात) थी। एकीकरण के समय एक शर्त रखी गयी थी कि जिस रियासत की जनसंख्या 10 लाख व वार्षिक आय एक करोड़ रूपये हो वो रियासतें चाहे तो स्वतंत्र रह सकती हैं या किसी में मिल सकती है। उपर्युक्त शर्त को पुरा करने वाली राजस्थान की केवल चार ही रियासतें थीं - बीकानेर, जोधपुर, जयपुर,उदयपुर।
अलवर, भरतपुर, धौलपुर, डुंगरपुर, टोंक व जोधपुर ये रियासतें राजस्थान में नही मिलना चाहती थी। अलवर रियासत का सम्बंध महात्मा गांधी की हत्या से जुडा हुआ है महात्मा गांधी की हत्या के संदेह में अलवर के शासक तेजसिंह व दीवान एम.बी. खरे को दिल्ली में नजर बंद करके रखा था।अलवर रियासत ने भारत का प्रथम स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाया।बांसवाड़ा के शासक चन्द्रवीर सिंह ने तो एकीकरण विलय पत्र पर हस्ताक्षर करते समय कहा था," मैं अपने डेथ वारन्ट पर हस्ताक्षर कर रहा हुँ।" उदयपुर के भूपाल सिंह को महाराज प्रमुख न बनाते तो यह एकीकरण संभव ही नहीं था। राजाओं महाराजाओं की गद्दियां खतरे में थी और उनका दिल रो रहा था जबकि गरीब जनता ठहाके लगाते हुये कह रही थी," उसके घर में देर है अंधेर नहीं।" 
एकीकरण कुल सात चरणों में 17/18 मार्च, 1948 से प्रारम्भ होकर 1 नवम्बर, 1956 को सम्पन्न हुआ, राजस्थान का एकीकरण का प्रथम चरण - मत्स्य संघ 17/18 मार्च, 1948 को शुरू हुआ जिसमें  4 रियासते अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली एवं एक नीमराणा(अलवर)ठिकाना था।महाभारत काल में यह मत्स्य प्रदेश ही हुआ करता था। इस क्षेत्र की भाषा, खानपान, भेषभूषा मथुरा आगरा मतलब बृज क्षेत्र से ही मिलती है अत: यहां के लोगों की मांग थी कि इसे यूपी में ही मिलाया जाय।इस संघ की राजधानी बनी
अलवर जिसके राजप्रमुख बने धौलपुर नरेश उदयमान सिंह और प्रधानमंत्री बने शोभाराम कुमावत। लेकिन यह संघ अभी राजस्थान एकीकरण से दूर ही रहा। संयुक्त राजस्थान बन जाने के बाद इसमें मिला। इसने तो एकीकरण की नींव डाल दी थी।
एक सप्ताह बाद ही  25 मार्च 1948 को दूसरा चरण प्रारंभ हो गया । पूर्व राजस्थान बना जिसमें 9 रियासतें डुंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, किशनगढ़, टोंक, बुंदी, कोटा, झालावाड़ व एक कुशलगढ़(बांसवाड़ा)ठिकाना। इसकी राजधानी बनी कोटा जिसके राजप्रमुख- भीमसिंह(कोटा) एवं प्रधानमंत्री- गोकुल लाल असावा(शाहपुरा) कोटा के महाराज को प्रमुख बनाये जाने से मेबाड के अपाहिज शाषक भोपाल सिंह खपा हो गये और उन्हौने इस संघ में मिलने से इंकार कर दिया। एक महीना उन्हें मनाने में निकल गया और खुद को राजप्रमुख बनाये जाने पर ही राजी हुये। और इस प्रकार 18 अप्रैल, 1948 को एकीकरण का तीसरा चरण- संयुक्त राजस्थान हुआ जिसमें पूर्व राजस्थान संघ के नौ रियासतों में उदयपुर को शामिल कर 10 रियासतें एवं एक ठिकाना थे। इसकी राजधानी- उदयपुर राजप्रमुख- भोपालसिंह (उदयपुर) उपराजप्रमुख- भीमसिंह और  प्रधानमंत्री- माणिक्यलाल वर्मा को पं. जवाहरलाल नेहरू की सिफारिश पर बनाया गया। इसके एक साल बाद बास्तविक और वर्तमान राजस्थान की नींव रखी गयी और  30 मार्च, 1949 को वृहद राजस्थान बन गया। इस वृहद राजस्थान में संयुक्त राजस्थान + जयपुर + जोधपुर + जैसलमेर + बीकानेर + लावा ठिकाना को मिलाकर कुल 14 रियासतें एवं 2 ठिकाने हो गये।मत्स्य संघ अभी भी इस राजस्थान निर्माण से दूरी बनाये था और यूपी में मिलने के अवसर तलाश रहा था। इसकी राजधानी- जयपुर, महाराज प्रमुख- भोपाल सिंह, राजप्रमुख- मान सिंह द्वितीय(जयपुर), उपराजप्रमुख- भीमसिंह और प्रथम प्रधानमंत्री- हीरालाल शास्त्री को बनाया गया। 30 मार्च 1949 को अधिकांश राजस्थान एक हो चुका था अत: इसी तिथि को हम राजस्थान दिवस के रूप में मनाते हैं। 
आखिरकार मत्स्य संघ को भी राजस्थान विलय के लिये तैयार कर लिया गया और पांचवें चरण के तहत 15 मई, 1949 को संयुक्त वृहद् राजस्थान निर्माण हुआ जिसमें शंकरादेव समिति की सिफारिश पर मत्स्य संघ को वृहद राजस्थान में मिला लिया गया।राजधानी- जयपुर महाराज प्रमुख- मानसिंह द्वितीय प्रधानमंत्री- हीरालाल शास्त्री।
अब बस आबू बचा था।काफी मशक्कत के बाद छठे चरण में  26 जनवरी, 1950 को राजस्थान संघ- वृहतर राजस्थान + आबु दिलवाड़ा को छोडकर आधा सिरोही मिलाकर बन गया जिसकी राजधानी- जयपुर, महाराज प्रमुख- भोपाल सिंह, राजप्रमुख- मानसिंह और पहले मुख्यमंत्री- हीरालाल शास्त्री को बना दिया गया। 26 जनवरी,1950 को राजपुताना का नाम बदलकर राजस्थान रख 'B' या 'ख' श्रेणी का राज्य बनाया गया।
और अतं में सातवें चरण के तहत 1 नवम्बर, 1956 को वर्तमान राजस्थान बन कर तैयार हो गया जिसमें आबु दिलवाड़ा एवं अजमेर मेरवाड़ा + सुनेल टपा को मिलाकर सिरोज क्षेत्र को मध्यप्रदेश को दे दिया गया।


राज्य पुर्नगठन आयोग के अध्यक्ष- फैजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुर्नगठन आयोग का गठन 1952 में किया गया था और इसने अपनी रिपोर्ट 1956 में दी थी । इसकी सिफारिश पर अजमेर-मेरवाड़ा आबू दिलवाड़ा तथा सुनेल टपा को राजस्थान में मिला दिया गया।

Wednesday, March 29, 2017

( मेरे दोस्त राही की आत्मकथा भाग दो : राज; एक अधूरी प्रेम कहानी )

शायद ही कभी किसी को फैल होने पर इतनी खुशी होगी जितनी मुझे हुयी थी । जैसा कि परमात्मा ने सोच रखा था उसी क्लास में फिर पढने लगा। आश्चर्य की बात ये थी कि कुछ भी नहीं बदला था। क्लास के सभी चौदह लडके बापस मेरे साथ पढ रहे थे। यहां तक कि लडकी का टौपर भाई भी। वह इम्प्रूव करना चाहता था। एक बार फिर वही स्कूल । वही साथी। बस इस बार मेरी आत्मा मेरे ही साथ थी। अब मुझे लंच का इंतजार नहीं करना था। हर पीरियड के बाद वो पानी पीने के बहाने मुझे मिलने आती थी। अब हमारी बातें होने लगीं थीं लेकिन चलते फिरते अतंरालों में। गांव में इतनी आजादी नहीं थी कि हम साथ बैठ कर कहीं बतिया सकें। एक दूसरे के साथ विचारों का आदान प्रदान पत्रों से होने लगा। हालांकि वह बहुत ही शर्मीली और अंतर्मुखी लडकी थी लेकिन उसका प्रेम उसके डर पर विजय पा चुका था और अब खुल कर मुझसे बात करने लगी थी। मुझे पता भी नहीं चला और उसने पत्र लिख लिख कर एक घडा भर दिया। मैं उसके घर जाने लगा। दिन में दो तीन बार भी चक्कर लग जाते थे। जब भी मौहल्ले में कोई गीत संगीत कार्यक्रम होता तो मैं उसे देखने भर की ख्वाइश से बहां पहले ही पहुंच जाता। गांव में रामलीला होती थी। मैं उसे देखने जाता था। इस बहाने आते जाते उससे बात करने का मौका मिल जाता था। बस ऐसे ही सालभर निकल गया। मार्च आ चली। एक बार फिर पेपर देने थे। कोई खास तैयारी नहीं थी इस बार भी क्यूं कि पढाई में दिमाग था किसका ? पूरी साल तो मौज मस्ती करते ही निकल गयी थी। क्लास में शैतानी करने में नंबर वन मैं ही था। क्लास छोडकर हम स्कूल के पीछे सैयद पर बैठे मूंगफली खाते रहते थे।


कैमिस्ट्री लैक्चरर चौधरी साहब को पूरी क्लाश खाली मिलती तो डंडा लेकर ढूंडने निकल पडते और हमें स्कूल के पीछे टीले पर स्थित सैयद की मजार पर पाते। बिना डंडे खाये कैमिस्ट्री समझ ही नहीं आती थी। साल के अंत में प्रैक्टीकल ऐक्जाम लेने के लिये बाहर से टीचर आया। 50-50 रूपये इकट्ठा करके मिठाई नमकीन मंगाई। प्रैक्टीकल के बाद चौधरी साहब एक्स्ट्रनल को बिदा करने बाहर गेट तक गये और लौटे तो टेबल पर से सारी नमकीन और मिठाई के डिब्बे और सारे स्टूडैन्ट्स गायब मिले। ऊपर टीले पर बैठकर हम मिठाई का आनन्द ले रहे थे तभी नीचे से चौधरी साहब की आबाज आयी'" कुत्तो कमीनेों , मिठाई खाली हो तो नीचे आ जाओ, अपने 50-50 रुपये तो बापस ले जाओ। प्रैक्टीकल में तो पूरे नम्बर दिलवाये हैं मैंने।" बस ऐसे ही खेलते कूदते पूरी साल निकल गयी। इस साल भी पास होने के कोई चांस न थे। पेपर से पहले मेरी उससे कुछ बात हुई। जादू सा असर हुआ उसकी बातों का मुझ पर। बस तीस दिन बाकी थे। गांव के दूसरे कोने पर एक कमरा ले लिया किराये पर और रात दिन बस पढता रहा। बीस बीस घंटे पढा। उससे भी न मिला। पेपर अच्छे गये। आशा थी फर्स्ट डिवीजन की। पेपर देते ही भैया ने अपने पास बुला लिया। आगे की पढाई गंगापुर सिटी में ही होनी थी। ये समय बहुत पीडादायक था। मुझसे भी ज्यादा उसके लिये भी। अब तक पूरा गांव मेरे और उसके संबधों को जान चुका था।मेरे जाने के बाद उस पर मनचलों की कमेंट्स की बौछार होने बाली थी। विरह वेदना को सहे या लोगों के तायने। ऊपर से बोर्ड की परीक्षा का दवाब। पढ लिख कर गरीब मां बाप का सपना भी पूरा करना था। 

Wednesday, March 1, 2017

शनि शिगणापुर

शिरडी मंदिर से बाहर मेला लगा हुआ था, रोड के सहारे फलों की डलिया लिये कुछ किसान भी खडे थे । केले अमरुद गन्ना इन फसलों में तो महाराष्ट्र का कोई सानी नहीं है। बडे बडे अमरूद भी सेब का स्वाद दे रहे थे। बाजार में घूमते घामते अंधेरा हो चला था। भूख भी लगने लगी थी। पास में ही एक सांई ट्रस्ट भोजनालय है जहां मात्र दस रूपये की भोजन थाली थी। अब चूंकि उस कस्वे में कुछ और घूमने लायक जगह हमें पता न चली तो सुवह ही शनि शिगणापुर जाने की सोच सोने का प्लान करने लगे। रुम तो कहीं मिला नहीं इसलिये हम तो उसी धर्मशाला में गद्दों का जुगाड कर गैलरी में ही लमलेट हो गये। मेरा तो ये हाल है कि नींद गहरी हो तो घूरे पर ही सुला दो वो भी डनलप का मजा देगा। पडते ही नींद आ गयी। किसी ने बहीं पर बताया था कि नजदीक ही शनिमहाराज का मंदिर है और उस गांव के घरों में किबाड नहीं होते, शनि रक्षा करते हैं, बस फिर क्या था उत्सुकता जाग गयी और चल दिये शनिमहाराज की तरफ । मंदिर के अलाबा गन्ने की खेती शनि सिंगनापुर की पहचान है।
शिगनापुर मंदिर की महिमा अपरंपार है। महाराष्ट्र के नासिक शहर के पास स्थित शिगनापुर गाँव में शनिदेव के प्राचीन मंदिर में शनिदेव की अत्यंत प्राचीन पाषाण प्रतिमा है। प्रतिमा को स्वयंभू माना जाता है। वास्तव में इस प्रतिमा का कोई आकार नहीं है। मूलतः एक पाषाण को शनि रूप माना जाता है। यहाँ शनि देव हैं, लेकिन मंदिर नहीं है। घर है परंतु दरवाजा नहीं। वृक्ष है लेकिन छाया नहीं। शनिदेव की स्वयंभू मूर्ति काले रंग की है। 5 फुट 9 इंच ऊँची व 1 फुट 6 इंच चौड़ी यह मूर्ति संगमरमर के एक चबूतरे पर धूप में ही विराजमान है। यहाँ शनिदेव अष्ट प्रहर धूप हो, आँधी हो, तूफान हो या जाड़ा हो, सभी ऋतुओं में बिना छत्र धारण किए हैं। माना जाता है इस गाँव के राजा शनिदेव हैं, इसलिए यहाँ कभी चोरी नहीं होती। इस गाँव के लोग अपने घर में ताला नहीं लगाते हैं, लेकिन उनके घर से कभी एक कील भी चोरी नहीं होती। यहाँ के लोगों का मानना है कि शनि की इस नगरी की रक्षा खुद शनिदेव का पाश करता है। कोई भी चोर गाँव की सीमारेखा को जीवित अवस्था में पार नहीं कर सकता। गाँव के बड़े-बुजुर्गों को जोर देने पर भी याद नहीं आता कि उनके गाँव में चोरी की कोई छोटी-सी भी घटना हुई हो। इसके साथ ही लोगों की आस्था है कि शिगनापुर गाँव के अंदर यदि किसी व्यक्ति को जहरीला साँप काट ले तो उसे शनिदेव की प्रतिमा के पास लाना चाहिए। शनिदेव की कृपा से जहरीले से जहरीले साँप का विष भी बेअसर हो जाता है।
शनि शिगनापुर मंदिर में शनिदेव के दर्शन करने, उनकी आराधना करने के कुछ नियम हैं। चूँकि शनिदेव बाल ब्रह्मचारी हैं, इसलिए महिलाएँ दूर से ही उनके दर्शन करती हैं। वहीं पुरुष श्रद्धालु स्नान करके, गीले वस्त्रों में ही शनि भगवान के दर्शन करते हैं। तिल का तेल चढ़ाकर पाषाण प्रतिमा की प्रदक्षिणा करते हैं। दर्शन करने के बाद श्रद्धालु यहाँ स्थित दुकानों से घोड़े की नाल और काले कपड़ों से बनी शनि भगवान की गुड़िया जरूर खरीदते हैं। लोक मान्यता है कि घोड़े की नाल घर के बाहर लगाने से बुरी नजर से बचाव होता है और घर में सुख-समृद्धि आती है।
हाल ही में तृप्ति देसाई के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा प्रवेश करने के मामले में यह मंदिर काफी चर्चित रहा था।
हम लोग आधे घंटे में ही मंदिर से फ्री होकर अहमदनगर रेलवे स्टेशन के लिये निकल पडे जहां से हमें गोवा के लिये वास्को एक्सप्रेस पकडनी थी। पिछली यात्राओं में बहुत कुछ खोने के बाद यह सीखा है कि यात्रा हमेशा अपने निजी वाहन से ही करनी चाहिये वरना यात्रा का मूल उद्देश्य समाप्त हो जाता है। हालांकि हम लोगों ने एकाध जगह टैक्सी रुकवा कर गन्ने का रस आदि का रसास्वादन किया था पर वो बात नहीं आ पायी जो अपने निजी वाहन से आ पाती है।
यहां वायुयान से भी आया जा सकता है । यहाँ का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पूना में है, जो यहाँ से 160 किमी दूर है। यहाँ का निकटतम रेलवे स्टेशन श्रीरामपुर है।

Goa tour गोवा टूर 2011

घुमक्कडी भी निसंदेह एक जुनून या कहूं कि एक पागलपन है तो गलत न होगा। घुमक्कड कम पैसों में भी अपने उद्देश्य को पूरा कर लेता है चाहे उसे कितनी ही परेशानियों का सामना क्यूं न करना पडे। ये रोग हर किसी को नहीं होता पर जिसे भी लगता है भंयकर रूप से लगता है। मुझे भी लगा है और आज से नहीं लगा है बल्कि 28 वर्ष हो गये। इन वर्षों में अधिकांश भारत को नाप डाला है और अब विदेशों की बारी है। कभी कभी तो पिछली बातें याद करते हुये खुद के पागलपन पर खुद ही हंस पडता हूं कि उस समय लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। बहुत साल पहले एक कंपनी के चीफ मैनेजर के इन्टरव्यूह में भी अपना इस जौब लेने के पीछे उद्देश्य यूरोप जाना बताया था। पेरिस और लंदन की गलियों में वाईक से घूमने का सपना तो पता नहीं कब पूरा होगा पर हां जब तक भारत को तो पूरा घूम ही लिया जाय।
धौलपुर में मेरे दो शिक्षक पडौसी अरविंद चौधरी और भगवती शर्मा मेरे बहुत ही घनिष्ठ मित्र भी हैं पर घूमने के मामले में बिल्कुल उलट हैं। यदि एकदम फ्री समय हो एवं खूब सारा पैसा हो और घर से पूर्ण अनुमति हो तो साथ जाने की हामी भर सकते हैं अन्यथा मुंह से ना ही निकलता है। और सबसे बडी बात है कि यात्रा पूरी तरह कम्फर्ट जोन में हो तभी जाना संभव हो पाता है उनका जबकि मेरा तो ये है कि मैं तो खिडकी से लटक भी जा सकता हूं। जैसे संसाधन हो उसी से समझौता भी कर लेता हूं। अभी मैंने गूगल पर मुंबई के एक घुमक्कड की यूरोप वाईक यात्रा पढी जिसमें उसने छ महीने में 18 देशों की यात्राएं की थी । इस बीच वह रातों को पार्क्स में समुद्री वीच पर धार्मिक स्थानों पर सोया था। जो भी मिल जाता वो खा लेता। कुल मिलाकर उसने अपनी ड्रीम यात्रा पूरी कर ही ली थी।
गोवा के सुदंर समुद्री किनारों पर शाम के वक्त पैदल घूमने की ना जाने कब से मन में थी पर चूंकि बडी ही रोमानी जगह है सोच रखा था कि अकेला नहीं जाऊगां, दोस्तों के साथ ही जाऊगां।
इस बार संयोग कुछ ऐसा बना कि अरविंद और भगवती दोनों शिरडी के सांई के दर्शन की इच्छा व्यक्त किये। मैंने सोचा थोडा आगे ही गोवा है चला जाय। अब चूंकि बडी मुस्किल से ही और तत्काल ही उनका प्रोग्राम बन पाता है, प्री प्लान्ड हो ही नहीं पाता। नतीजजन इस बार हमें जनरल वोगी में जाना पडा। मैं तो जनरल आदमी हूं और जनरल में ही चलता आया हूं और जनरल लोगों से बतियाकर जीवन दर्शन करता आया हूं अब तक।
आखिरकार एक दिन बैठे बैठे बातों ही बातों में गोवा जाना फाईनल हो गया और तुरंत ही पैकिगं की तैयारी होनी लगी। एक बार कहीं टाम डिक हैरी की पैकिगं कहानी पढी थी वही हो गया मेरे साथ इस बार। कभी कभी ऐडा बन के पेडा खाना ही बेहतर होता है क्यूं कि ज्यादा कर्मठ और चतुर बनना हमें गधा बना कर रख देता है। अरविन्द और भगवती को गलत तरीके से पैकिंग करते देख मैं अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनते हुये बिना अपना अंजाम सोचे पट से बोल पडा,
"पैकिंग करना तो कोई हमसे सीखे। तुम दोनों तो मुझे अनाडी लगते हो। "
अच्छा , जरा कर के दिखाओ ? भगवती तपाक से बोला मानो उसकी मनोकामना पूर्ण हो गयी हो।
"चल हट परे, साईड में हो और ये देख , मैं कैसे करता हूं, मुझे फोलो करना और जैसे जैसे मैं कहते जाऊं करते जाना।"  मैं जोश में मैदान में उतरते हुये बोला।
मैने सोचा था कि मैं आदेश दुंगा और वो करते जायेंगे पर ये क्या !
वो तो दोनों पठ्टे बैड पर लेट गये और बोले,
पैकिंग हो जाये तो बता देना।
अब ये भी कोई बात हुई भला ? शिष्य बनने को बोला था या मालिक ? कमबख्तों ने बेगारी मजदूर बना कर रख दिया था । खैर गरज मेरी भी थी।
गुस्सा को दबा तो गया पर गुस्से में दिमाग उलट पलट हो गया।
हडबडी में पहले चीकू रख दिये और फिर उपर से भारी सामान। पता चला चीकू स्वर्गलोकगमन कर गये। चम्म्मच से निकालने पडे। खैर इस बार थोडा सावधानी से काम किया । बैग पैक हो भी गया पर
पूरी पैकिगं के बाद याद आया बृश तो अदंर रह गया जबकि सुवह जल्दी चलते समय उसकी जरूरत पडेगी । एक बार फिर सारा सामना निकालना पडा।
पनीर चेयर पर रख कर भूल गया और गलती से बैठ गया, पिछवाडे पर पूरा पनीर चिपक गया।
याद आया कि पनीर रखना है तो सारे कमरे में ढूंडता डोलूं, वो दोनों पट्ठे हंसे पर बतायें नही कि पीछे पैंट पर चिपका है।
पूरे दो घंटे तक चक्करघन्नी बनता रहा और पनीर को ढूंडता रहा।

शनि शिगणापुर से गोवा के लिये रवाना।।

अहमदनगर से गोवा की एक मात्र ट्रैन वही वास्को हमें फिर मिल गयी। इस बार तो जनरल की और हालत खराब थी। पर चितां किसको थी मन की कल्पनाओं में तो मैं गोवा की सुंदरता में खोया हुआ था। जब भी मैं फिल्मों में गोवा के सुदंर समुद्री तटों का नजारा देखता था, मन में समुद्र की सफेद ऊंची ऊंची लहरों में खो जाने का मन करता था।
अहमदनगर से मजबूरी में वास्को एक्सप्रैस में जैसे तैसे धींगा मुश्ती करते यह सोच कर कि आगे जाकर एडजस्ट हो जायेंगे चड तो गये लेकिन एडजस्ट होने में दो घंटे निकल गये । महाराष्ट्र का सतारा के आसपास दक्षिण भारत की प्रमुख नदी कृष्णा नदी के भी दर्शन हो गये। यहीं से निकली है वो नदी जिसमें सतारा के पास ही पांच नदियां आकर संगम करती हैं। थोडा और आगे चले तो कोल्हापुर आ गया जो शायद चप्पलों के लिये फिल्मों में फेमस रहा है। कोल्हापुर से जैसे ही आगे बढे कुछ समय के लिये गाडी कर्नाटक में प्रवेश कर गयी। कर्नाटक में केवल एक स्टोपेज ही है इसका। कर्नाटक आते ही हब्सी भूतों का एक झुंड हुलाला हुलाला करता डिब्बे पर टूट पडा, बिना पूछे धक्का दिया और सीट पर बैठ गये। अभी तक रामायण में दक्षिण के राक्षसों का जिक्र सुना था और उनकी हरकतें भी जानी थीं पर यहां तो साक्षात राक्षसों के दर्शन हो गये। काले काले भूत। जैसे सीधे जंगल से ही चले आ रहे हों।
गोवा से थोडा पहले एक मौडर्न लडके से पता पूछने की कोशिष में तीन प्रश्न क्या कर दिये, खाने को दौड पडा,
" ऐ भाई पहले ही बहुत टैंशन है , मगजमारी मारी मत करो यार। "
अपना मुंह बंद किये मडगांव तक चलता रहा। सुवह छ बजे तक हम मडगांव पहुंच गये। पंजिम की बजाय हमने यहीं रुकना वेहतर समझा। पंजिम में बहुत मंहगाई है। पणजी की अपेक्षा यहां होटल सस्ते मिल जाते हैं। मात्र सौ रूपये पर बैड की भी व्यवस्था है। कमरा पांच छ सौ में मिल जाता है। स्टेशन से होटल तक ले जाने के लिये मोटरसाइकिल बाले, टैम्पो आदि उपलब्ध हैं। शहर घूमने के लिये भी मात्र चार सौ रुपये में वाईक किराये पर मिल जाती है।
मडगांव स्टेशन पर जाकर एक वैंडर से पूछा ,
होटल कौनसी साईड से मिलेंगे भईयाजी, लैफ्ट या राईट?
पहले टाल गया, फिर पूछा, फिर पूछा, तो मुंह खोला और बोला तो क्या बोला,
ऐ भाई पहले ही बहुत टैंशन है , मगजमारी मारी मत करो यार। आगे बढ कर एक यूपी बाले भैया ने समझाया तब काम बना। बाहर निकले तो देखो कुछ वाईकर्स पंक्तिवद्ध खडे हैं सवारी के इंतजार में। भाडे पर वाईक ड्राईवर पहली बार देखे थे मैंने। हमने उन वाईकर्स से ही होटल छोडने को बोल दिया। मात्र छ सौ रुम लिया और दो वाईक किराये पर लीं। और चल दिये चालीस किमी दूर गोवा की राजधानी पणजी या पंजिम की तरफ। खूवसूरत शहर, प्राक्रतिक सौदंर्य , पुर्तगाली सभ्यता और चर्च मन को मोह लेते हैं। करीब आधे घंटे तक खूबसूरत सडक पर चलने के बाद हम पणजी नदी के किनारे खडे होकर पणजी जाने का सोर्टकट रास्ता पूछने को एक भाई को पूछने लगे,
भईया जी, सामने पणजी है, कोई सोर्टकट रास्ता है ?
"हां है ना, वैरी सिंपल।" चेहरे पर मासूमियत और गंभीरता लिये सूखे से मुंह से बोला,
जानकर खुशी हुयी कि कौई तो प्यार से बोला।
" एक काम करो, गाडी का बूं बूं बूं बूं करके ऐक्सीलिरेटर घुमाओ और इस नदी को जंम्प करा दो, बस इससे ज्यादा शौर्टकट कोई हो ही नहीं सकता। "
अचानक चेहरे पर गुस्सा का भाव लाते हुये बोल पडा, और फिर बडबडाते हुये चल पडा
"जाने कहां कहां से आ जाते हैं सोर्टकट बाले ?"
जब से महाराष्ट्र कोकण क्षेत्र में घुसा था कोई सीधे मुंह बात ही नही कर रहा था। अब तक कम से कम बीस जने ऐसे ही जिदंगी से परेशान दुरात्माओं से पाला पड चुका था। खैर जैसे तैसे बार बार पूछते गाली सी खाते पणजी बीच पहुंच गये।
गोवा की राजधानी पणजी छोटा शहर  जरूर है लेकिन बेहद खूबसूरत शहर है। चांदी-सी चमकती धाराओं वाली मांडवी नदी के किनारे यह शहर स्थित है। यहां के लाल छतों वाले मकान, खूबसूरत बगीचे, कलात्मक पाषाण प्रतिमाएं, खूबसूरत गुलमोहर और अन्य हरे-भरे वृक्षों की छाया में हर कोई वहां की खूबसूरती में खो-सा जाता है। इसके अलावा मारगाओ, वास्को डिगामा तथा मार्मुगाओ हार्बर जैसे शहरों में घूम कर लुत्फ उठाया जा सकता है।
गोवा एक छोटा-सा राज्य है जहां छोटे-बड़े लगभग 40 समुद्री तट है। गोवा शांतिप्रिय पर्यटकों और प्रकृति प्रेमियों को बहुत भाता है। समुद्र तटों के कारण गोवा का विश्व में अलग पहचान है। गोवा नदी और समुद्र का अद्भुत संगम है। नारियल के पेड़ और समुद्र के पानी पर पड़ने वाले सूर्य की रोशनी के मनमोहक नजारे गोवा के खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं।

पूरा शहर घूमने के बाद शाम को बीच beach पर पहुंचे जिसे देखकर लगा जैसे जनरल के डिब्बे में एक पैर की खडेश्वरी तपस्या से अल्लाहताला खुश हो गये हैं और हमें 72 हूरों के पास जन्नत में भेज दिया हो। खैर हूरों को निहारने का अपना कोई इरादा न था, हम तो तीन दोस्त लहरों में कूद पडे । नहाने का साबुन नहीं था, कोई बात नहीं, प्रक्रति के पास सबकुछ है। समुद्री रेत किसी सैम्पू से ज्यादा बढिया थी और फिर रेत में लोट पोट होने का आनंद ही अलग था। पूरे दो घंटे मस्ती किये हम वहां। हम तो रेत में लोटापीटी करने में मस्त थे और कुछ फौरिनर पेयर्स जल क्रीडा में।
इसके अलावा वोट के द्वारा पैराग्लाइडिगं भी करायी जाती है वो भी बडा रोमांचक था।
प्राकर्तिक सोंदर्य से से भरपूर स्थल goa अपने समुद्री तटों की वजह से दुनिया भर में प्रसिद्द है । कर्नाटक व महाराष्ट्र से घिरे गोवा के पश्चिम में लहलहाता अरब सागर है । यहाँ की राजधानी पणजी है जो की एक साफ सुथरा शहर है ।
वैसे तो पूरा साल गोवा जाने के लिए उपयुक्त है किंतु अक्तूबर से मई तक का समय गोवा जाने के लिए सबसे सही रहता है । और दिसम्बर में तो गोवा जाने का अलग ही मजा है क्योंकि क्रिसमस और नया साल यहाँ बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है नया साल मानाने के लिए यहाँ जगह जगह से लोग आते हैं इसीलिए इस समय यहाँ की रोनक देखते ही बनती है ।
इतिहास में महाभारत गोवा का उल्लेख गोपराष्ट्र के नाम से मिलाता है माना जाता है कि इस स्थान की रचना परुशराम ने की थी ।
इस स्थान का नाम गोवा पुर्तगालियों ने रखा था पुर्तगालियों ने यहाँ लगभग ४०० साल तक राज किया इस बीच यहाँ अंग्रेजों व मराठों का राज भी रहा । 1961 में गोवा पुर्तगाली शासन से आजाद होकर भारत का हिस्सा बन गया । इतने समय तक पुर्तगाल का शासन रहने के कारण आज भी पुराने गोवा के घरों की बनावट में पुर्तगालियों की छाप नजर आती है । पाव या ब्रैड बनाने बाले वेकर या पैडर आज भी अपना पुस्तैनी व्यवसाय करते हुये देखे जा सकते हैं। यह एक बहुत ही साफ सुथरा राज्य है यहाँ सड़कें सुंदर वृक्षोंसे सजी हैं । गोवा की प्रमुख भाषा कोंकणी और मराठी है लेकिन पूरे गोवा में हिन्दी बोली व समझी जाती है । दर्शनीय स्थलों के लिहाज से गोवा 2 भागों में बंटा हुआ है । उत्तरी गोवा और दक्षिणी गोवा । उत्तरी गोवा में मायेम झील, वागाटोर बीच, अंजुना बीच, कलंगूट बीच तथा फोर्ट अगोडा आदि हैं और दक्षिणी गोवा में पणजी, डोना पाऊला बीच, पुराने गोवा के बाम जीसस तथा सी केथेड्रल चर्च आदि हैं ।।
घूमते घूमते भूख लग आयी थी शाम भी हो चली थी निकल पडे रोटी की तलाश में पर कहीं गेहूं की रोटी नहीं मिले , बडापाव इडली डोसे ने भी मूड खराब कर रखा था, रैस्ट्रॉं में पहुंच कर एक एक इडली मगांई , वो पट्ठा दो रख गया, भाई एक ही चाहिये, दो नहीं, एक वापस ले जाओ। वो पट्ठा गुस्से में बडबडाता दोनों वापस ले गया,
भाई क्या हुआ ? यार एक तो दे ?
पहले टाल गया, फिर पूछा, फिर पूछा, तो मुंह खोला और बोला तो क्या बोला,
ऐ भाई पहले ही बहुत टैंशन है , मगजमारी मारी मत करो यार। लेना है तो दो लो वरना खाली पीली टाईमखोटी नको।
दो दिन तक लगातार सुपर टैंशनफुल लोगों के बीच रहते रहते मैं भी कपडे फाडने की स्थिति में आ पहुंचा था।
जाने के टाईम पर मालेगांव स्टेशन पर नईदिल्ली से आयी गाडी से उतरे एक नौजवान ने मुझसे पूछा,
भईयाजी ये होटल कौनसी साईड मिलेगा, लैफ्ट या राईट?
मैं पहले तो टाल गया, उसने फिर पूछा, फिर पूछा,
मैं भी बाल नौचते बोल पडा,
ऐ भाई पहले ही बहुत टैंशन है , मगजमारी मारी मत करो यार।

जारी ...... 

शिरडी के सांई बाबा के दर्शन ।।

खैर कुल मिलाकर पैकिगं भी हो गयी और हम अगले ही दिन सुवह पांच बजे ग्वालियर के लिये रवाना हो गये जहां से हमें वास्को एक्सप्रेस पकडनी थी। गोवा के लिये धौलपुर से कोई डायरैक्ट ट्रैन नहीं है इसलिये हमें ग्वालियर से वास्को पकडनी पडी। हाल ही हाल में योजना बनी थी अत: जनरल में ही जाना पडा था। मैं तो पैदाईसी घुमक्कड हूं इसलिये मुझे तो जनरल में भी कोई प्रौब्लम नही होती और बल्कि आनंद आता है क्यूं असली भारत दर्शन तो जनरल में ही है। लेकिन शिरडी बाले सांई बाले बाबा से मिलने की प्रबल इच्छा के वशीभूत होकर मेरे दोनों दोस्तों ने भी भेड बकरियों बाले जनरल डिब्बे में जाना भी स्वीकार कर लिया।एज यूज्वल  ट्रैन छकाछक मिली। हालत ये हुई कि ग्वालियर से पकडी वास्को में मनमाड तक टंगे टंगे ही जाना पडा। पहली बार मनमाड स्टेशन पर उतरकर खुली हवा मिली। उतरते ही देखा कि  टैम्पो बाले 18-20 किमी दूर सांई मंदिर के लिये जोर से पुकार रहे थे। टैम्पो को भरने में मुस्किल से पांच मिनट लगी होंगी। वो हमें लेकर शहर के चौराहे पर पहुंचा ही था कि पुलिस जीप उसके पीछे लग गयी। हजारों की भीड को देखकर पुलिस बाले भी टैम्पो बालों से जमकर कमाई करते हैं। जब धर्म के नाम पर लाखों कमा रहे हैं तो वो ही क्यूं चूकें ? हहहह खैर दस मिनट के लिये थानेदार ड्राईवर को एक कौने में ले गया और उधर से मुस्कुराता हुआ आया। हम भी समझ गये कि सांई बाबा की कृपा दृष्टि इस पर भी पड गयी।
हम दस किमी ही चले थे कि दक्षिण की गंगा गोदावरी नदी को पहली बार देख कर मन प्रशन्न हो गया। हरे भरे पेडों से घिरी लेकिन सिमटी सी शरमाई सी गोदावरी भी मुझे सांवली नजर आयी। भले ही सांवली थी पर सलोनी थी। थोडी ही दूर नासिक शहर में इसकी भव्यता देखी जा सकती है जब कुंभ के मेले में लाखों लोगों की भीड टूट पडती है।
आधे घंटे की टैम्पो यात्रा के बाद हम शिरडी के सांई बाबा की नगरी में दस्तक दे दिये। सोचा पहले तो रुकने का इंतजाम किया जाय ताकि नहाधोकर यात्रा की थकान मिट सके। सांई धर्मशाला में पैर रखने को जगह नहीं, रूम कहीं मिले नहीं। बिना पूर्व की तैयारी के इस प्रकार की परेशानियों का सामना करना ही पडता है। और फिर उन दिनों हमारे पास गूगल गुरु भी नहीं थे। साधा फौन था एकदम ठोका नोकिया बाला। धर्मशाला के बगल से ही सार्वजनिक स्नानागार है, स्त्री पुरुषों के लिये सबके लिये व्यवस्था है।
शाम को नहा धोकर दर्शन करने पहुंचे। धर्मशाला से मुश्किल से दस मिनट पैदल चल कर ही सांईबाबा का मंदिर है। एक किमी लंबी लाइन पार करने में दो घंटे लग गये जबकि ये तो वो समय था जब बहुत कम लोग थे बहां। आखिरकार स्टील की रैलिग्सं में आगे बढते हुये सफेद संगमरमर की बाबा की मूर्ती के दर्शन हुये, मन प्रशन्न हो गया सुदंर संगमरमर का मंदिर देखकर। चडावा इतना कि बस पूछो मत। बाबा जब जीवित थे और लोगों को एकेश्वरवाद की शिक्षा दे रहे थे तब उन्हौने खुद भी नहीं सोचा होगा कि मेरे मरने के बाद लोग उनके नाम पर इतना बडा व्यापार खडा कर लेंगे। ससनातनी कहूं या भारतीय परम्परा में एकेश्वरवाद की मूल अवधारणा में लचीलापन का ही परिणाम है कि लोगों ने व्यक्ति पत्थर पेड यहां तक कि जानवर को भी अवतार बनाकर मूर्ति खडी कर उगाही करना शुरू कर दिया और वो उस व्यक्ति की मूल विचारधारा सिक्कों की खनखनाहट के शोर में दब कर रह गयी। बाबा जिन्दा होते और अपने नाम पर धंधा करते देखते तो निश्चित ही उन्हें दुख होता। बाबा तो एक फकीर थे और फकीर का पैसे से क्या रिश्ता ?
नयी दुनियां है साब। धर्म बिना लागत का धंधा बन चुका है। जहां तक बाबा के बारे में जानकारी ये है कि शिरडी साईं बाबा ( 28 सितम्बर 1836 - 15 अक्टूबर,1918) एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु, योगी ,फ़कीर  और सूफी संत थे। बाबा एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और बाद में एक सूफ़ी फ़क़ीर द्वारा गोद ले लिए गए थे। साईं बाबा मुस्लिम टोपी पहनते थे और जीवन में अधिंकाश समय तक वह शिरडी की एक निर्जन मस्जिद में ही रहे, जहाँ कुछ सूफ़ी परंपराओं के पुराने रिवाज़ों के अनुसार वह धूनी रमाते थे। मस्जिद का नाम उन्होंने 'द्वारकामाई' रखा था। उन्हें पुराणों, भगवदगीता और हिन्दू दर्शन की विभिन्न शाखाओं का अच्छा ज्ञानथा। सबका मालिक एक है के उद्घोषक वाक्य से शिरडी के साईं बाबा ने संपूर्ण जगत को सर्वशक्तिमान ईश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार कराया। उन्होंने मानवता को सबसे बड़ा धर्म बताया। खैर चलो इस बहाने कुछ गरीबों के बच्चे भी पल रहे हैं। मंदिर परिसर में घूमते घामते दूसरी ओर से बाहर निकल आये और धर्मशाला में सोने को रूम न मिला तो बरामदे में ही पसर गये। सुवह जल्दी ही जगे। नहा धोकर जल्दी से निकल लिये शनि शिगणापुर के लिये जिसके बारे में कहा जाता है कि आज भी घरों में ताले नहीं होते। 

इंदौर पिपरिया पचमढी यात्रा


मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में स्थित पचमढ़ी मध्य भारत का पहाडों की गोद में बसा सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थल है। इंदौर से रात को ही निकल लिया था जिसने मुझे सुवह ही पिपरिया स्टेशन छोड दिया। पंचमढी जाने के लिये सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन पिपरिया ही है जो बहां से करीब 47 km दूर है। यहां जबलपुर से दो घंटे में एवं इटारसी से एक घंटे में पहुंचा सकता है। पिपरिया से टैक्सी बस कार आदि साधनों से आप पंचमढी पहुंच सकते हैं।जबलपुर और इटारसी के बीच पिपरैया स्टेशन से पचमढी किसी टैक्सी या बस से पहुंच कर आप कोई बाइक या जिप्सी हायर कर सकते हैं।

 मात्र पांच सौ एवं पैट्रोल में बाइक एवं जिप्सी करीब चार सौ में शेयर कर सकते हैं और पहाडों में राईडिगं का लुत्फ उठा सकते हैं। मैंने जिप्सी शेयर करने की बजाय चार सौ प्लस पैट्रोल में पल्सर लेना उचित समझा था क्यूं कि मेरे पास सिर्फ एक ही दिन था और बाइक से मैं अपनी मनपंसद जगहों को घूम सकता था। हालांकि पंचमढी के दर्शनीय स्थलों में बहुत ज्यादा कुछ खास नहीं था मेरे लिये क्यूं कि जिसने हिमालय ही बाइक से नाप डाला हो तो सतपुडा और बिध्यांचल उसके सामने थोडा हल्का ही नजर आता है फिर भी हमें यहां की कल्चर तो जाननी ही थी। रही बात मंदिरों की तो पूरे देश में कहीं चले जाओ , जहां जंगल पहाड नदियां होंगी बहां किसी न किसी गुफा में भोले जरूर विराजमान होंगे। कोई समझे तो यही असली शिव है। हर कंकर में शंकर है। हर पहाड की तरह यहां भी हर दो कदम पर भोले विराजमान हैं। यहां के हरे-भरे और शांत वातावरण में बहुत-सी नदियों और झरनों के गीत पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इसके साथ ही यहां शिवशंकर के कई मंदिर भी हैं। इसलिये पचमढ़ी को कैलाश पर्वत के बाद महादेव का दूसरा घर कह सकते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भस्मासुर (जिसे खुद महादेव ने यह वरदान दिया था कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा और भस्मासुर ने यह वरदान खुद शिवजी पर ही आजमाना चाहा था) से बचने के लिए भगवान शिव ने जिन कंदाराओं और खोहों की शरण ली थी वह सभी पचमढ़ी में ही हैं।शायद इसलिए यहां भगवान शिव के कई मंदिर दिखते हैं। मुझे लगता है कि पौराणिक कथाओं की डिकोडिंग होनी चाहिये। उस समय के पंडितों ने कूट भाषा में कुछ बातें कहीं हैं जिनका शब्दार्थ नहीं भावार्थ निकाला जाना चाहिये। 
पौराणिक कथाओं से बाहर आकर आज की बात करें तो मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में स्थित पचमढ़ी समुद्रतल से 1,067 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच होने और अपने सुंदर स्थलों के कारण इसे सतपुड़ा की रानी भी कहा जाता है। सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान का भाग होने के कारण यहां चारो ओर घने जंगल हैं। पचमढ़ी के जंगल खासकर जंगली भैंसे के लिए प्रसिद्ध हैं। इस स्थान की खोज कैप्टन जे. फॉरसोथ ने 1862 में की थी। पचमढ़ी की गुफाए पुरातात्विक महत्व की हैं क्योंकि इन गुफाओं में शैलचित्र भी मिले हैं। पचमढ़ी से निकलकर जब आप सतपुड़ा के घने जंगलों में जाएंगे तो आपको बाघ, तेंदुआ, सांभर, चीतल, गौर, चिंकारा, भालू आदि अनेक प्रकार के जंगली जानवर मिलते हैं। पचमढ़ी का ठंडा सुहावना मौसम इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। सर्दियों में यहां तापमान लगभग 4 से 5 डिग्री तक रहता है और गर्मियों में तापमान 35 डिग्री से अधिक नहीं जाता। यहां की सदाबहार हरियाली घास और हर्रा, जामुन, साज, साल, चीड़, देवदारु, सफेद ओक, यूकेलिप्टस, गुलमोहर, जेकेरेंडा और अन्य छोटे-बड़े सघन वृक्षों से आच्छादित वन गलियारे तथा घाटियां मनमोहक है। यहां आप कई जलप्रपात का मजा ले सकते हैं जिसमें रजत प्रपात, बी फॉल्स तथा डचेज फॉल्स सबसे लोकप्रिय हैं। इसका बी फॉल्स नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि पहाड़ी से गिरते समय यह झरना बिलकुल मधुमक्खी की तरह दिखता है। यह पिकनिक स्पॉट भी है, जहां आप नहाने का भी मजा ले सकते हैं। रास्ते में आम के पेड़ बहुतायत में दिखते हैं। डचेज फॉल पचमढ़ी का सबसे दुर्गम स्पॉट है। यहां जाने के लिए करीब डेढ़ किलोमीटर का सफर पैदल तय करना पड़ता है। इसमें से 700 मीटर घने जगलों के बीच से और करीब 800 मीटर का रास्ता पहाड़ पर से सीधा ढलान का है।