Tuesday, February 28, 2017

महेश्वर से ऊंकारेश्वर

महेश्वर से सुवह ही तीनों मैं , विक्की और नितिन भाई डिस्कवर से ऊंकारेश्वर की तरफ बढ चले। 75-80 किमी चलने में हमें दो घंटे लगे क्यूं कि हम आराम से रुकते रुकाते धीमे धीमे बढ रहे थे। रास्ते में काली मिट्टी के खेतों, कपास गन्ना जैसी फसलों को देखना भी विकी के लिये एक नया अनुभव ही था। ऊंकारेश्वर के नजदीक पहुंचते ही हमें एहसास हो गया कि महाकुंभ की तैयारियां चल रही हैं। सिहंस्थ में इस बार वास्तव में बहुत ज्यादा भीड उमड पडी थी। सडकों का निर्माण चल रहा था ताकि भक्त लोग उज्जैन ऊंकारेश्वर महेश्वर त्रिकोण पूरा कर सकें। ऊंकारेश्वर में प्रवेश करते ही एक नया संगमरमर का बना मंदिर नजर आता है। शहर की भीडभाड से दूर यह मंदिर संस्था की तरफ से था जिसमें ध्यान योग पर जोर ज्यादा था।
आगे चलते हैं नर्मदा नदी के तट पर पहुंचते हैं और ममलेश्वर के दर्शन करते हैं। नर्मदा और गंगा दोनों के ही घाट भक्तिमय नजर आते हैं। हर कंकर यहां शंकर का रूप ले लेता है। हजारों लाखों छोटे बडे मंदिरों का निर्माण हुआ होगा इनके तट पर। ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव जैसे अनेकों मंदिर हैं।
हम पहुंचे सबसे पहले ममलेश्वर मंदिर जहां कि सुवह की आरती चल रही थी। अलग अलग कोनों में बैठे पंडित जी अपने यजमानों के धार्मिक क्रियाकलापों की रस्म पूरी करा रहे थे। मेरे जैसे घुमक्कड लोग कम ही होते हैं ऐसी जगहों पर । अधिकांशत: श्रद्धालु भक्त लोग ही आते हैं। शायद ही कोई ऐसा मानव हो जिसके जीवन में कोई कष्ट न हो और ये स्थान मनोवैज्ञानिक रुप से उनकी परेशानियों को हरने का या उन्हें आगामी जीवन के लिये आत्मविश्वास दिलाने का एक प्रमुख स्थान होता है। ममलेश्वर मंदिर से नर्मदा की ओर उतरते जाते हैं दोनों ओर दुकानें सजी हुयी हैं। पहाडों से अतंप्रवाही जल की एक धारा भी यहां निकलती है जिसके मुख पर गोमुख बना दिया है। यहीं पर ढेर सारी नावें लगा दी गयीं हैं जिनसे आप दूसरी ओर स्थित एंकारेश्वर तक जा सकते हैं। लेकिन हमें अपनी बाइक लेने बापस आना पडता इसलिये पुल से ही जाना उचित लगा। पुल से थोडी ही दूरी पर बैराज का सायरन आवाज लगा कर पानी छोडने की चेतावनी दे रहा था। हम तो पुल पर थे इसलिये चिंता की कोई बात नहीं थी। पुल से होते हुये ऊंकारेश्वर के पहाड पर बनी टीन सैड गलियारे से होते हुये मंदिर तक पहुंच गये। कोई ज्यादा भीड भी नहीं थी। तुरंत दर्शन हो गये। लोग जल चढा रहे थे इसलिये फर्श गीला हो रहा था। हम तो शिव के प्राकृतिक रुप के उपासक हैं इसलिये ज्यादा रूचि नहीं थी उस धार्मिक क्रियाकलाप में। निकल लिये पहाडों के बीच रेंगती नर्मदा की तरफ जो मुझे सबसे ज्यादा आत्मिक सुख दे सकती थी। नरमदा के तट पर जल क्रिडा करते लोगों को देखते हुये बापस पुल पर आये जहां कि हमारी बाइक खडी थी। बाइक लेकर चल दिये बैराज की तरफ लेकिन गेट में अदंर घुसना मना था। बगल से ही एक रास्ता जा रहा था जो हमें सीधे ऊंचे पहाड की ओर ले जाता था। काफी कठिन चडाई थी लेकिन डिस्कवर चडा ले गयी । ऊपर से पूरा शहर और वैराज दिखाई देता है। थोडी देर घूम फिर कर बापस आ गये। भूख लग आयी थी। खाना खाकर लौटना भी था। नितिन जी से अलग होना बहुत भावुक क्षण था मेरे लिये। ऊंकारेश्वर से थोडा आगे चलने के बाद हमारे रास्ते अलग होते थे। नितिन जी को महेश्वर निकलना था और मुझे इंदौर । इंदौर बाले मार्ग पर घाट को पार करना तो जैसे दिल को भा गया। गजब का रास्ता है। ऊंची नीची रास्तों से चलते हुये पहाड और जंगल को पार करना अलग ही अनुभव था। घर पर भैया नहीं थे। पचमढी की ट्रैन शाम को ही थी। भैया की गाडी घर पर रखी और निकल लिया पचमढी की ओर। 


















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