Wednesday, January 25, 2017

भोपाल से शहडोल।। virat temple sohagpur

अब आपको मप्र के शहडोल बोले तो सुहागपुर ले चलते हैं और आपको मिलाते हैं अनंत तिवारी से जिसे शहडोलवासी मुहब्बत में खूंचू तिवारी कहते हैं।खूंचू भैया का शहडोल आमंत्रण ही मेरी इस यात्रा का मुख्य कारण बना। 
भोपाल से शहडोल पहुंचने में काफी देर हो चुकी थी क्यूं कि ट्रेन बाया कटनी होते हुये गयी और फिर शहडोल पर मेरी नींद नहीं खुली तो मैं अनूपपुर पहुंच गया। अगली बापसी ट्रेन दो घंटे बाद थी इसलिये अनूपपुर स्टेशन पर ही बैठा रहा। एक बार तो सोचा कि यहीं से सीधे पेन्ड्रा रोड स्टेशन और फिर अमरकंटक पहुंच जाऊं। 

पैन्ड्रारोड से अमरकंटक बहुत नजदीक भी है लेकिन अनंत तिवारी जी शहडोल ही बुलाना चाह रहे थे मुझे। इतनी आत्मीयता से कोई मुझे बुलाये और मैं न जाऊं कैसे संभव है ? थोडा लेट ही सही पर बारह बजे तक शहडोल पहुंच ही गया। उसी दिन अमरकंटक जाना मैंने उचित नहीं समझा। एक तो रास्ते की थकान और दूजे रिमझिम बारिष । बैसे भी शहडोल भी बहुत खूबसूरत जगह है घूमने को तो क्यूं न अनंत तिवारी भाई की स्कार्पियो को शहडोल की हरी भरी पहाडियों में घुमाया जाय। कल्चुरी काल का विराट मंदिर, विवेकानंद पार्क और कंकाली माता का मंदिर बहुत ही शानदार जगह हैं देखने को। दिन भर घुमाऊंगा इनको अब। पूर्वांचली पंडत ने जाट देवता का आह्वान किया है तो झेलना तो पडेगा ही न।स्टेशन से आते ही स्नान किया। संयोग से बहन जी एवं जीजाजी भी आये हुये थे। छोटे भाई, मम्मी एवं दोनों बेटियों के साथ बैठकर भोजन किया और फिर बडी बेटी की अभिनय क्षमता का भी परीक्षण किया। गजब की ऐक्ट्रैस है बडी बेटी। झांसी की रानी बाली कविता पर रोंगटे खडे हो गये। छोटी बेटी तो पूरी बतबनो है, पूरी तरह बाप पर गयी है। एकदम नौटंकी। घडी घडी ड्रामा करती है बाप की तरह। परिवार से मिलने मिलाने के बाद हम निकल पडे कल्चुरी शाषकों द्वारा निर्मित विराट मंदिर की तरफ।








कहा तो यही जाता है कि सोहागपुर या शहडोलके विराट मंदिर का निर्माण पाण्डव काल में हुआ था जबकि मुझे ये सही प्रतीत नहीं होता क्यूं कि महाभारत काल ईसा पू है जबकि ये बाणगंगा सुहागपुर का विराट शिव मंदिर कल्चुरी शाषक युवराजदेव ने  950 और 1050 AD के बीच आचार्य गोलककी मठ के लिये बनवाया था। बहुत सारे Archaeologists का मानना है कि यह कर्णदेव का मंदिर है। मंदिर का अगला भाग ढह गया था, जिसे तत्कालीन रीवा नरेश गुलाबसिंह ने ठीक कराया था। उसके बाद ठाकुर साधूसिंह और इलाकेदार लाल राजेन्द्रसिंह ने भी मंदिर की देखरेख पर ध्यान दिया था।इस बजह इसका अगला भाग बडा सामान्य सा कमरा प्रतीत होता है लेकिन पिछला भाग जो अब काफी तिरछा हो चुका है, शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के पिछले भाग की वाहरी दीवारों पर शिव पार्वती नाचती मुद्रा में दिखाई देते हैं तो सरस्वती, गणेश, विष्णु, नरसिंह, व्याल भी नजर आते हैं। अदंरी भाग में तांबे के एक फ़णीनाग शिवलिंग पर विराजित हैं। अदंर इतना अंधेरा था कि मुझे कुछ भी दिखाई नहीं पड रहा था। मोबाइल की लाईट चालू कर रिकार्डिगं प्रारंभ करी ही थी कि तिवारी जी की शिव महिमा प्रारंभ हो गयी। अगले भाग में बहुत सारी खंडित प्रतिमायें भी रखी हुयी थीं जो समय के बदलाव की कहानियां सुना रहीं थीं। उन  मूर्तियों में बुद्ध महावीर के अलावा बहुत सारे देवी देवताओं की थीं। निकल कर बाहर आये तो बाहरी दीवाल पर वीणावादनी मां शारदे, शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी विष्णु तथा बांई ओर स्थानक मुद्रा में ब्रम्हा दिखाई देते हैं। साथ ही स्थानक मुद्रा में नंदीराज, गांडीवधारी प्रत्यंचा चढाए अर्जुन, उमामहेश्वर, वरद मुद्रा में गणपति तथा विभिन्न तरह का व्यालांकन भी दिखाई देता है। कुछ मूर्तियां कामक्रीडा करती हुये उन्मत्त नायक नायिका की कामकला के विभिन्न आसनों को प्रदर्शित करते हुये भी दिखाई दीं।मैथुनरत स्त्री और पुरुष को इस प्रकार मंदिर की दीवारों पर दिखाया जाना सैक्स के प्रति उनकी खुली सोच को व्यक्त करता है।




हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही थी और अभी हमें कई जगह जाना था। इसलिये थोडी देर घूमने के बाद उसके नजदीक ही स्थित विवेकानंद पार्क चले गये। बहुत सुंदर पार्क है लेकिन यहां भी बूंदाबांदी ने हमें ज्यादा घूमने से रोक दिया। इसलिये अब निकल पडे बिंध्याचल की हरी भरी बादियों की ओर जहां कंकाली माता का मंदिर भी हमें घूमना था। मां कंकाली के इस भव्य मंदिर और दिव्य प्रतिमा का इतिहास वर्षों पुराना है। यहां पर एक लेख के अनुसार 10-11वीं सदी के कल्चुरी काल का बताया जा रहा है। यहां पर मां चामुंडा, शारदा, अष्टभुजी सिंहवाहिनी प्रतिमाएं भी गर्भगृह में स्थापित है। 18 भुजी मां चामुंडा, आंखें फटी हुई, भयोत्पादक खुला मुंह,नसयुक्त लगी हुई ग्रीवा, गले में मुंडमाला, लटके हुए वक्ष, विपक्ष उदर-पीठ, स्पष्ट पसलियां, शरीर अस्थियों का होने से इनका नाम कंकाली पड़ा। हाथों में चंड-मुंड नामक दैत्य, अलंकृत प्रभामंडल, पैरों के पास योगनियां अलंकृत हैं। सभी भुजाओं में परंपरागत आयुध धारण किए हुए हैं। एक हाथ वरद मुद्रा और दूसरे हाथ में कमल पुष्प धारण किए हुए हैं। बताया जाता है कि ग्राम अंतरा में मां कंकाली एक आदिवासी की सेवा से खुश होकर प्रकट हुईं थीं। माता बियाबान जंगल में पहुंची और भक्त को स्वप्न देकर अपने आने का संकेत दिया। आम के पेड़ के पास प्रकटी मां की स्थापना के लिए ग्रामीणों ने मंदिर बनवाया, लेकिन वे पेड़ के नीचे ही विराजी रहीं। डोंगरगढ़ से काली चरण दास अंतरा पहुंचे और मां की सेवा में जुट गए। सेवा से प्रसन्न होने के बाद मां मंदिर में विराजीं। कालीचरण मां की सेवा करते 1992 में यहां पर सामधिस्थ हो गए हैं।
स्वामी विवेकानंद पार्क को घुमने के बाद हम दोनों बिध्याचल की हरी भरी बादियों की तरफ बढ चले।एक तो रिमझिम बूंदाबांदी और ऊपर से हल्के हल्के हवा के झोंकों के बीच गाडी में चलता हुआ गाना , दिल का शीशा टूट गया, मूड को बेईमान बनाने लगा।भाई ने जौ के पानी की दो कैन और ले लीं। अब तो मूड सुपर बेईमान हो गया। माता के मंदिर की बजाय बीस किमी दूर सीधे ऊंची पहाडियों पर ले गया भाई। गजब का दृश्य था। सुपर। गाडी खडी की और भाई तो चड गया ऊपर। मैं नहाने के बाद कुर्ता पाजामा पहन कर निकला था घर से इसलिये जूतों की बजाय भाई की चप्पल पहन आया। मुझे क्या पता था कि ऐसे मौसम में भी भाई पहाड की चडाई करायेगा। फिसलते गिरते पडते मैं भी चडने लगा। ज्यादा दिक्कत हुई तो चप्पल उतार कर हाथ में ले लीं और नंगे पांव ही चड गया। एकदम ऊपर पहुंच कर क्या नजारा देखा ! गजब ! मजा आ गया। एकदम जन्नत । दूर दूर तक हरी भरी पहाडियां। हल्की हल्की बूंदें और हवा के झौंके। एकदम मस्त। आधा घंटे तक भीगते रहे दोंनों भाई। सोचा था कि लौट कर कंकाली माता के चलेंगे लेकिन भाई फिर कहीं और ले गया। इस बीच हमारी काफी आदिवासियों से मुलाकात और चर्चा हुई थी और मैंने उनके बारे में काफी कुछ जाना भी है।एक दो के घर भी गये हम। उनके जीवन शैली के बारे में बच्चों की शिक्षा के बारे में बहुत कुछ जानकारियां मिलीं। एक गौरू से भी मुलाकात हुयी जो पैसे लेकर गाय चराने जाता है। इस प्रकार घूमते घामते दोस्तों से मिलते मिलाते हम घर लौट आये।
अगले ही दिन सुवह ही सुवह खुंचू भैया को बाइक पर अमरकंटक जाने का जुनून सवार हुआ। हरदम स्कार्पियो जैसी लक्जरी गाडी में चलने बाला भाई अचानक से नये नवेले छोरे छोरियों के मकसद से बनायी गयी ऊंची नीची सीट बाली करिज्मा पर पीछे बैठ कर ढाई सौ किमी पहाडों में चले तो उसका क्या हाल होना है, बताने की आवश्यकता नहीं है। बार बार मेरी पीठ पर आकर ऐसे लद जाये मानो विक्रम की पीठ पर बेताल लदा हो और कह रहा हो कि सुना अमरकंटक की कहानी। अब करिज्मा कंपनी बालों ने ये बाइक की पीछे बाली सीट किसी नवयौवना के लिये बनायी थी ना कि खुंचू भैया जैसे बुजूर्ग के लिये। हर ब्रेकर पर वाह वाह की जगह आह आह की आबाज आ रही थी। सारे रास्ते अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहे कि एक जमाना था कि लोग नाम सुन कर थर्राते थे पर अब मैं थोडा शरीफ हो गया हूं। मुझे भी लगा कि भाई का जवानी में कर्रा बाला जलवा होगा पर अमरकंटक में कपिलधारा की तेज धारा में नहाने के बाद जैसे ही मुझसे आगे जल्दी जल्दी आ बढे कि अचानक से घवरा कर पीछे लौट पडे। मैं आश्चर्य में कि खुनचूस बीमारी किस से डर सकता है भला ? देखा तो सामने हनुमान जी बैठे थे और बडे प्यार से खूंचू भैया की तरफ देखे जा रहे थे। और तिवारी भैया भैंरों का जाप किये जा रहे। जब हनुमान जी चले गये तब जान में जान आयी इस शेर के।





















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